भूस्खलन के कारण क्या हैं What are the causes of landslides
भूस्खलन के कारण क्या हैं What are the causes of landslides

भू – स्खलन के क्या कारण हैं ? भू – स्खलन को किस प्रकार रोका जा सकता है ?

भू – स्खलन का सरल शाब्दिक अर्थ है- भूमि का खिसकना अर्थात पहाड़ी क्षेत्रों में शैल, मृदा या मलबे के नीचे और बाहर की तरफ खिसकने की प्रक्रिया को ही भू – स्खलन कहते हैं। यह हिमालयी एवं पर्वतीय क्षेत्रों में होने वाली एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें जमीन अपनी अस्थिर परिस्थितियों को स्थिर स्थिति में परिवर्तित करने की कोशिश करती है। इस आपदा की उत्पत्ति में मनुष्य द्वारा किए जा रहे अवैज्ञानिक विकास का भी एक बड़ा योगदान है। जिस हिमालय को भारत का मुकुट कहा जाता है और जिस हिमालय क्षेत्र की आध्यात्मिकता उसके मंदिर, तीर्थ स्थलों, मठों के कारण रही है, उसी हिमालय में आज भूकम्प, भूक्षरण, बादल फटना एवं भू – स्खलन जैसी आपदाएँ सिलसिलेवार जारी हैं। गौरतलब है कि हिमालयी क्षेत्र के अधिकांश राज्यों में ढलानों एवं पहाड़ियों पर बड़ी संख्या में मानव जाति निवास कर रही है और साथ ही अपने विकास के नाम पर उसका दुरुपयोग भी कर रही है, तो स्वाभाविक है कि इसके फलस्वरूप प्रकृति का यह कहर तो हमें सहना ही पड़ेगा।

तो क्या हमें पहाड़ी क्षेत्रों में विकास कार्य रोक देने चाहिए ?

नहीं, परन्तु ये विकास कार्य हमें उन नियमों और कानूनों के तहत करने चाहिए जो इनके दुष्प्रभाव को कम करने में सहायक हों। भू – स्खलन की समस्या केवल हिमालयी क्षेत्रों या भारत की ही नहीं, बल्कि दुनिया के हर पहाड़ी क्षेत्र की समस्या है। विभिन्न देशों की सरकारें भू – स्खलन आपदाओं को लेकर भिन्न – भिन्न प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करती रही हैं, परन्तु यह देखने में आया है कि जिन देशों में भू – स्खलन सम्बन्धी नियम, कानून व जिम्मेदारियाँ तय कर दी गई हैं वहाँ भू – स्खलन से होने वाले नुकसान में कमी आई है। इन देशों में शामिल हैं- जापान, हांगकांग, स्विट्जरलैण्ड, अमेरिका आदि।

भू – स्खलन से साधारणत: प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मानव समाज व उसके पर्यावरण पर बहुत प्रभाव पड़ता है। जैसे कृषि योग्य भूमि का कटाव, वनों का विनाश, चारागाहों की क्षति, फसलों का नुकसान, मानव निर्मित भवनों एवं अन्य संरचनाओं की क्षति, सड़क एवं रेलवे लाइन के टूटने एवं अवरुद्ध होने से यातायात की असुविधा, बिजली एवं जल वितरण प्रणाली में बाधा व नुकसान, संचार माध्यम में अवरोध उत्पन्न होना, जान – माल की हानि इत्यादि। अधिकांश ऐतिहासिक, सांस्कृतिक स्थल, मंदिर एवं मठ आदि पर्वतों एवं उनकी तलहटी में होने के कारण इस त्रासदी की चपेट में आने से हमारे समाज का नुकसान होना। सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थानों से सम्बन्ध टूटना। पहाड़ी इलाकों में सेना की आवाजाही का सड़क ही एकमात्र साधन होने से भू – स्खलन के कारण राहत एवं बचाव कार्य समय पर नहीं हो पाते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक सौन्दर्य संसाधनों, वनस्पति, खनिज एवं जल इत्यादि का नुकसान होता है।

भू – स्खलन त्रासदी पर चिन्तन करने से स्पष्ट होता है कि इसका कोई एक विशेष कारण नहीं है। भू – स्खलन को उत्प्रेरित करने वाले अनेक कारक हैं, जैसे – मृदा आवरण का लोप, वृष्टि प्रस्फोट (बादल का फटना) और मानव जनित अनेक प्रकार की गतिविधियाँ। 90 प्रतिशत भू – स्खलन मानसून में तथा शीतकालीन वर्षा के दौरान होते हैं। भू – स्खलन को उत्प्रेरित करने में पानी की बहुत प्रभावकारी भूमिका होती है। भूकम्प आने एवं चट्टानों के खिसकने, टूटने के कारण पर्वतों में आने वाली दरारों में वर्षाकाल में पानी भरता रहता है। चूने आदि से बने पर्वतों में जल भराव के कारण रासायनिक क्रिया द्वारा धीरे – धीरे क्षय होने से भू – स्खलन को बढ़ावा मिलता है।

landslides
भूस्खलन (landslides)

भू – स्खलन के कारणों में प्रमुख हैं –

● हिमालय क्षेत्र में अंधाधुंध निर्माण, वनों का सीमित होते जाना और बस्तियों का फैलना।

● ढाल की प्रवणता में प्राकृतिक एवं कृत्रिम हस्तक्षेप द्वारा परिवर्तन | वन जमीन एवं पानी के प्रबन्धन के पारम्परिक ज्ञान की उपेक्षा कर उस तरफ लापरवाही बरतना आदि।

● भूकम्प आना, विवर्तनिक, यांत्रिक झटकों, तरंगों का प्रभाव व भ्रंश क्षेत्रों का पुनः क्रियान्वित होना।

● अत्यधिक भार एवं गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव, अपरुपित बल बढ़ने से।

● प्राकृतिक कारणों से चट्टानों का अपक्षयन- मुख्यतः भौतिक एवं रासायनिक कारणों से।

● वनस्पति के अभाव एवं मानव द्वारा किए गए असन्तुलित क्रिया कलापों से।

उक्त तथ्य एवं जानकारी से स्पष्ट है कि भू – स्खलन, पर्वतीय क्षेत्रों में आने वाली एक प्राकृतिक आपदा है। इससे बचने के लिए विभिन्न पूर्व उपाय अपनाकर इसकी भयावहता से बचा जा सकता है अथवा उसमें बहुत हद तक कमी तो लाई ही जा सकती है।

सरकार को भू – स्खलन सम्बन्धी बिल पारित कराकर नियम, कानून बनाने चाहिए। इसके तहत वह विकास कार्य जिनसे क्षति (आर्थिक या जीवन) की आशंका हो, आपदा जोखिम वाले इलाकों में बिना पूर्व बचाव कार्यों के योजनाबद्ध नहीं किए जा सकते। योजनाएँ पूर्व में हुई आपदाओं पर आधारित होनी चाहिए। सर्वप्रथम भू – स्खलन स्थलों की पहचान करने तथा सीमांकित करने के लिए भू स्खलन विपदा मंडलीकरण, अति उच्च तीव्रता, उच्च तीव्रता तथा निम्न तीव्रता, अति निम्न तीव्रता भू – स्खलन क्षेत्रों का चिह्निकरण कर मानचित्र तैयार कराना आदि। कानून तहत स्थानीय सरकार को भी आपदा हेतु तत्काल कदम उठाने हेतु अधिकार दिए जाने चाहिए।

इसके अलावा सरकार के द्वारा जो कार्य किए जाने चाहिए, वे हैं –

● आपातकालीन स्थिति में जनता की सुरक्षा करना।

● निर्माण से पूर्व भू – तकनीकी रिपोर्ट की जरूरत तय करना व रिपोर्ट का रिव्यू करवाना तथा निर्माण के यूनतम मानक तय करना एवं आपदा न्यूनीकरण विधियों के जरिए आपदा नियंत्रित करना।

● खतरे के क्षेत्र में प्रबन्धन के लिए सभी उपलब्ध आँकड़ों का उपयोग किया जाना।

● स्थान सम्पत्ति सम्बन्धी जानकारी का अभिलेखीकरण कर आम जनता को उससे सम्बन्धित भू – तकनीकी रिपोर्ट से अवगत कराना। खतरे की गम्भीरता के विषय में जानने के लिए भौगोलिक एवं भूगर्भीय नयशों का उपयोग किया जाना।

● स्थानीय स्तर पर परिस्थितियों व आपदाओं को ध्यान में रखते हुए प्रकृति से छेड़छाड़ को नियंत्रित किया जाए। नदी – नालों के किनारे या उनका मार्ग परिवर्तित कर भवन निर्माण कदापि न होने दें।

● कोई भी व्यक्ति भू – स्खलन आपदा वाले क्षेत्रों में स्थानीय सरकार की बिना स्वीकृति के कोई कार्य नहीं कर सके, तीव्र पहाड़ी ढलानों के नीचे या भू – स्खलन के पुराने मलबे पर बस्तियाँ न बनाएँ। 60 प्रतिशत से ज्यादा ढलान वाले क्षेत्रों में पेड़ों का कटान न करना। नए निर्माण, पुनर्निर्माण, संरचना में बदलाव, 500 वर्ग फीट से ज्यादा का निर्माण व खुदाई न करना।

● उन स्थलों का चयन करें, जहाँ भू – स्खलन एवं हिमस्खलनों की सम्भावना लगभग न हो।

● अन्तर्विभागीय कमेटी का गठन कर उसके समन्वय के आधार पर विचार विमर्श करते हुए भवन निर्माण मानक विभाग, खुदाई, भराव व निर्माण तथा स्थान के चुनाव के लिए ऐसे मानक तैयार करना जो स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल हों।

● भू – संरक्षण व विकास विभाग को आपदा न्यूनीकरण व भू – उपयोग के अधिकारों के लिए अध्यादेश बनाना।

● वन विभाग को भू – स्खलन आपदा सम्बन्धित नियमों का पालन करने और आपदा न्यूनीकरण को ध्यान में रखकर योजनाएँ बनाने वन उपयोग की जिम्मेदारी तय करनी चाहिए।

● भू – संरक्षण व विकास विभाग, वन विभाग, केन्द्रीय सड़क अनुसंधान केन्द्र, सीबीआरआई, जीएसआई एवं अन्य सम्बन्धित विभागों (सभी सरकारी / गैर सरकारी विभाग जिनका संबंध भू – स्खलन आपदा या पहाड़ी क्षेत्र के विकास से हो) के समन्वय हेतु अन्तर विभागीय समिति का गठन कर नियम एवं कानून द्वारा जिम्मेदारी / जवाबदेही तक कर दी जाए।

मोटे तौर पर स्थानीय भू – स्खलन आपदाओं के न्यूनीकरण की जिम्मेदारी पंचायत पर डाली जा सकती है, ताकि स्थानीय स्तर पर तत्काल राहत व बचाव कार्य हो सके। प्रत्येक गाँव से कम से कम दो व्यक्तियों को प्राथमिक चिकित्सा एवं दो अन्य को खोज – बचाव एवं राहत कार्यों का निःशुल्क प्रशिक्षण दिया जा सकता है। शिक्षकों / एनएसएस / एनसीसी के छात्रों को आपदा प्रबन्धन हेतु प्रशिक्षण देकर बचाव दल तैयार किए जा सकते हैं। अब हमारे पहाड़ी क्षेत्रों के हर विकास कार्य / भू – उपयोग में आपदा सम्बन्धित दृष्टिकोण की जाँच नियम / कानून बनाकर यदि सरकार राष्ट्रीय, राज्य व स्थानीय स्तरों पर शुरू कर दे, तो भू – स्खलन जैसी विनाशलीला से बचा जा सकता है।

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