मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System in MP)
मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था (Panchayati Raj System in MP)

मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था पर प्रकाश डालिए।

मध्यप्रदेश : पंचायती राज व्यवस्था

यदि भारत के साक्षात दर्शन करना है, तो गाँवों की ओर उन्मुख होना ही होगा क्योंकि हमारा देश गाँवों में बसता है। गाँव ही भारत देश की वह आधारशिला है, जिस पर सम्पूर्ण भारत की इमारत तैयार होती है। जब तक गाँव ही समृद्धशाली, उन्नत एवं स्वावलम्बी न होंगे, तब तक सुशिक्षित, सम्पन्न समता का भाव समाहित करने वाले भारत देश की कल्पना करना ही व्यर्थ है।

भारत में पंचायती राज व्यवस्था कोई वस्तु न होकर एक अत्यन्त प्राचीन, बुनियादी और आदि व्यवस्था है। प्राचीनकाल से ही ग्राम स्तर पर सदैव पंचों की परंपरा रही है। कहते है कि, ‘पंचों के मुख से ईश्वर बोलता है।’ जो ग्रामीण अंचल के हर पहलू पर अपने निर्णय लेता है, समस्याओं का समाधान करता है और अपने क्षेत्र के विकास में सदैव प्रयासरत रहता है।

प्राचीनकालीन यह परम्परा ब्रिटिश शासन के आगमन से धराशायी हो गई। ग्रामीण संस्कृति एवं उनकी स्वतंत्र जीवन प्रणाली निष्प्राण हो गई और उनका स्थान नवीन कानूनों एवं अदालतों ने ले लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही इस निष्प्राण व्यवस्था को जीवन्त करने के प्रयास प्रारंभ हो गये। सर्वप्रथम 1947 में ‘पंचायती राज अधिनियम’ बना। 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम एवं राष्ट्रीय विस्तार सेवा कार्यक्रम प्रारंभ कर ग्रामों के विकास के प्रयास सरकार द्वारा किये गये। वर्ष 1957 में बलवन्तराय मेहता समिति, 1978 में अशोक मेहता समिति के गठन एवं उनकी पंचायती राज संस्थाओं की स्थापना एवं विकास के लिये अनेक महत्वपूर्ण सिफारिशें की, जिसके परिणामस्वरूप 1993 में भारतीय संविधान में 73 वाँ संशोधन हुआ, जिसके माध्यम से पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता प्राप्त हो गई। इसी संशोधन के अनुरूप ही मध्यप्रदेश पंचायती राज अधिनियम -1993 ’25 जनवरी, 1994 से प्रभावशील हुआ और राजस्व इकाई के रूप में त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था, ग्राम पंचायत, जनपद पंचायत एवं जिला पंचायत के रूप में प्रारंभ की गई। मध्यप्रदेश में पंचायती राज व्यवस्था प्रारंभ होने से सत्ता का विकेन्द्रीकरण हुआ है व सरकार, जनता से संपर्क स्थापित करने में सफल हुई है।

मध्यप्रदेश पंचायती राज व्यवस्था में सत्ता विकेन्द्रीकरण के उद्देश्य से ग्राम, जनपद एवं जिला पंचायतों को विभिन्न कार्य एवं उत्तरदायित्व सौंपे गये है, जिससे कृषि, संचार, शिक्षा, सामान्य प्रशासन, उद्योग, वन एवं सहकारिता पर आधारित निर्णय लिये जा सकें तथा गाँवों का निरंतर विकास करते हुए उन पर पर्याप्त ध्यान दिया जा सकें। पंचायतों को आत्मनिर्भर बनाने के उद्देश्य से अनुच्छेद. 243 (झ) के तहत 5 वर्षीय राज्य वित्त आयोग का गठन 1994 में किया गया, जो पंचायतों को अधिक वित्तीय स्त्रोतों का आवंटन एवं उनकी आर्थिक समीक्षा का कार्य भी करता है। त्रिस्तरीय पंचायती व्यवस्था से जुड़े व्यक्तियों पंच, सरपंच एवं अन्य पदाधिकारियों को प्रशिक्षित करने का कार्य भी इसके अंतर्गत आता है। राज्य चुनाव आयोग को नियमित चुनाव कराने का उत्तरदायित्व सौंपा गया।

जनशक्ति की महत्ता को स्वीकारते हुए पंचायती कानूनों में अनेक संशोधन किये गये है। जनता को निर्वाचित पंच एवं सरपंचों को बुलाने का अधिकार, भ्रष्ट पंचायतों के प्रतिनिधियों को निलम्बित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। गांधी जी के ग्राम स्वराज्य की कल्पना को मूर्त रूप देने के लिये 26 जनवरी, 2001 से ‘ग्राम स्वराज’ को लागू किया गया। 26 जनवरी, 2001 को ही ‘ग्राम न्यायालय’ की स्थापना की गई। मध्यप्रदेश का प्रथम ग्राम न्यायालय नीमच जिले का झाँतला ग्राम है। 15 नवम्बर, 2007 को ‘पंचायती राज सचालनालय’ की स्थापना की गई है। महिला आरक्षण 33% से बढ़ाकर 50% कर दिया गया। ग्रामीण सचिवालय व्यवस्था का प्रारंभ 8 अगस्त, 2004 को किया गया।

यद्यपि मध्यप्रदेश पंचायती राज व्यवस्था को पर्याप्त अधिकार सम्पन्न बनाकर सुदृढता प्रदान की गई है, तथापि इसमें अभी भी कुछ खामियाँ विद्यमान है। जैसे-

  • ग्रामीण स्तर पर राजनीतिकरण के कारण गुटबंदी, हिंसा एवं स्वार्थ में अभिवृद्धि हो रही है।
  • प्रशासनिक अधिकारियों एवं जन प्रतिनिधियों के मध्य समुचित तालमेल का अभाव है।
  • जन प्रतिनिधियों का अशिक्षित होना एवं उनके समुचित प्रशिक्षण का अभाव है।
  • जन सामान्य का इन संस्थाओं से विश्वास उठ रहा है।
  • योजनाओं के क्रियान्वयन में लापरवाही एवं भ्रष्टाचार का बोल -बाला।
  • महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि अवश्य परन्तु कर्ता-धर्ता कोई और।

कुछ कमियों को त्याग दें, तो यह पंचायती राज व्यवस्था सत्ता विकेन्द्रीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण है। जहाँ हर जाति, धर्म, वंश एवं लिंग को प्राथमिकता देकर राज्य एवं देश के उज्जवल भविष्य एवं विकास को दिशा प्रदान की है। योजनाओं का लाभ जन-जन तक पहुंचा है।

महात्मा गांधी की ‘ग्राम स्वराज्य’ की अवधारणा एवं संविधान के नीति निर्देशक तत्व के अनुच्छेद. 40 में वर्णित कार्यों की पूर्ति हेतु कुछ सकारात्मक प्रयास अवश्य किये जाने चाहिये। ताकि मध्यप्रदेश पंचायती राज का आदर्श स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत हो सकें। उदाहरणार्थ-

  • पंचायतों की निष्पक्ष कार्य प्रणाली चिकसित हो।
  • पंचायतों को अधिकाधिक प्रशासनिक एवं वित्तीय अधिकार सम्पन्न बनाया जाये।
  • प्रशासनिक अधिकारी एवं जन प्रतिनिधियों को एक-दूसरे का पूरक बनाया जाये।
  • पंचायत सदस्यों की न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित हो।
  • समय-समय पर जन प्रतिनिधियों का प्रशिक्षण एवं ग्राम सभाओं का आयोजन हो।

नि:संदेह मध्यप्रदेश पंचायती राज व्यवस्था शुभ विचारों की सुदृढ़ इच्छाशक्ति का परिणाम है। ये संस्था ही लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण के माध्यम से सामाजिक परिवर्तन, समान न्याय एवं राष्ट्र निर्माण द्वारा आधुनिकीकरण कर उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकती है क्योंकि पंचायती राज का सीधा संबंध ग्रामीण विकास से है, जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से भारत के विकास की राह निर्मित करता है। अत: पंचायती राज की सफलता के लिये आवश्यक है कि पंचायती राज व्यवस्था के उच्च आदर्शों एवं कार्यक्रमों को सभी वर्गों की सहभागिता से पूर्ण किया जाये तथा समस्याओं का अधिकाधिक एवं त्वरित समाधान किया जाये, जिससे हमारे देश भारत की छवि ग्रामीण अंचल में देखी जा सकें।

Check Also

नक्सलवाद (Naxalism)

नक्सलवाद (Naxalism) क्या है ?

आजकल नक्सलवाद (Naxalism) से हर कोई वाकिफ है। वर्तमान में भारत के कई राज्य नक्सलवाद …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!