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भारत की विलुप्त होती जीव प्रजातियाँ (Extinct species of India) –
प्रकृति में विभिन्न जीवों की मृत्यु और उनके स्थान पर नवीन प्रजातियों का उद्भव एक सतत प्रकिया है। भारत की गणना विश्व के 12 महाविविधतापूर्ण राष्ट्रों में होती है। पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय के आँकड़ों के अनुसार, भारत विश्व के कुल प्राणि जगत का 7.31% तथा वनस्पति जगत का 10.88% भाग घेरे हुए है तथा भारत में 25 जैविक प्रान्त हैं एवं 14 जैव – भौगोलिक क्षेत्र है। भारत में लगभग 166 प्रकार की फसलें तथा जंगली पौधों की 320 प्रजातियाँ खाद्य रूप में प्रयुक्त होती है।
भारत, जैव – विविधता के सन्दर्भ में विश्व के सबसे समृद्ध देशों में से एक है। यहाँ विश्व की सभी जीव प्रजातियों की 8 % संख्या (लगभग 16 लाख) विद्यमान है। भारत में 10% वन्य वनस्पति जाति और 20% स्तनधारी जीव लुप्त होने की कगार पर हैं। इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की रेड डाटा बुक में संकटग्रस्त प्रजातियों को दर्ज किया जाता है। इसके अनुसार किसी भी प्रजाति को विलुप्त तब कहा जाता है जब वह पचास वर्षों तक वन्य रूप में कहीं भी नहीं देखी गई हो ; जैसे – डोडो। भारतीय प्राणि – विज्ञान सर्वेक्षण (जेडएसआई) के अनुसार, चीता, लाल सिर वाली बतख और पहाड़ी कुऔल भारत में विलुप्त हो चुके हैं। किसी भी प्रजाति को संकटग्रस्त तब कहा जाता है जब इनकी संख्या बहुत कम हो और संरक्षण के अभाव में इनके विलुप्त होने की सम्भावना हो।
प्रजातियों के विलुप्तीकरण के कारण –
विलुप्त होती प्रजातियों के विलुप्त होने के निम्नलिखित कारण हैं –
जैव – विविधता के भण्डार : भारत में बढ़ती आबादी और विकास की दोड के कारण पारिस्थितिकी – तन्त्र पर जैविक और अजैविक दबाव निरन्तर बढ़ रहे है। फलतः जैव – विविधता का हास हो रहा है।
वनों का विनाश : आबादी का दबाव बढ़ने के कारण न केवल शहर बल्कि गाँव भी बढ़े हैं जिससे जंगल सिकुड़ने लगे हैं। मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इनका अधिकाधिक दोहन किया है। ये वन प्रजातियों के प्राकृतिक केन्द्र होते हैं। वन का विनाश प्रत्यक्ष रूप से विभिन्न प्रजातियों का विनाश है।
वन्यजीवों का शिकार : वन्यजीवों की खाल, सींग, हड्डी, खुर, दाँत आदि का औषधीय अथवा श्रृंगारिक महत्व होने के कारण इनका शिकार किया जाता है।
प्राकृतिक आवासों का नष्ट होना : प्राकृतिक आवासों में प्रजातियों को भोजन और शरण दोनों मिलते हैं तथा सुरक्षित प्रजनन भी प्राकृतिक आवासों में ही सम्भव हो पाता है। प्राकृतिक आवासों के नष्ट होने के कारणों में प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन, वनों की कटाई, प्रदूषण, झूम खेती, जलवायु परिवर्तन, जंगलों की आग, बाढ़ तथा तूफान आदि शामिल हैं।
जीन – रूपान्तरित बीजों का विस्तार : आजकल जीन में परिवर्तन कर नए बीज के प्रयोग का प्रचलन बढ़ रहा है। ये बीज मिट्टी में मिलकर रासायनिक प्रक्रिया करते हैं जिससे वन्यजीव इन बीजों को खाने के उपरान्त अपनी प्रजनन क्षमता खो देते हैं।
अनियन्त्रित पशु चराई : इससे मिट्टी के कटाव को बल मिलता है तथा कई वनस्पतियों का पुनर्जनन अवरुद्ध हो जाता है। भारत में विश्व की लगभग 15% पशु सम्पदा है, अतः यहाँ पशु चराई बड़े पैमाने पर होती है।
प्रदूषण : प्रदूषण विभिन्न तरीकों से प्रजातियों को नुकसान पहुंचाता है। कृषि कार्यों में कीटनाशकों का प्रयोग फसलों को कीटों से बचाव के लिए किया जाता है, किन्तु ये कीटनाशक विभिन्न प्रजातियों की मृत्यु का कारण भी बनते हैं। जैसे – मोर, बाज, चील, गौरैया आदि।
पर्यावरण में परिवर्तन : पर्यावरण में परिवर्तन प्राकृतिक भी होता है और मानव जनित भी। जो प्रजातियाँ पर्यावरण में होते बदलावों के अनुरूप स्वयं को ढाल लेती है, वे तो बनी रहती है और जो ऐसा नहीं कर पाती है उनका अस्तित्व या तो समाप्त हो जाता है या संकटग्रस्त हो जाता है।
रोग : अधिकांशतः मानव गतिनिधियों के कारण वन्यजीव प्रजातियाँ रोगग्रस्त हो जाती है। विदेशी प्रजातियों के आने से भी रोग बढ़ते है और स्थानीय प्रजातियाँ विलुप्त हो जाती है।
भारत के प्राकृतिक संरक्षण संगठन –
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए)
राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण का गठन 4 सितम्बर, 2006 को किया गया। इसका उद्देश्य अभ्यारण्य प्रबन्धन में संख्यात्मक मानकों को सुनिश्चित करने के साथ – साथ बाघ संरक्षण को सुदृढ़ करना है।
भारतीय वन्यजीव संस्थान (डब्ल्यूआईआई)
इसकी स्थापना वर्ष 1982 में की गई। यह संस्थान वन एवं पर्यावरण मन्त्रालय के प्रशासनिक नियन्त्रण के अन्तर्गत एक स्वशासी संस्थान है। इसे वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में प्रशिक्षण तथा अनुसंधान संस्थान के रूप में मान्यता दी गई है। वर्ष 1999 में इसे राजीव गाँधी वन्यजीव पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
जीव – जन्तु कल्याण बोर्ड (एडब्ल्यूबीआई)
जीव – जन्तु कल्याण प्रभाग को जीव – जन्तुओं के प्रति क्रूरता निवारण अधिनियम, 1960 के प्रावधानों को लागू करने का कार्य सौंपा गया है। जीव – जन्तु कल्याण बोर्ड एक सांविधिक संगठन है।
भारत की संकटग्रस्त प्रजातियाँ –
जैव – विविधता से सम्बन्धित चौथे अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ की लाल सूची के अनुसार, भारत में वैश्विक रूप से संकटग्रस्त 413 जीव – जन्तुओं की प्रजातियाँ हैं, जो विश्व के कुल संकटग्रस्त प्रजातियों का 4.9% है।
भारत में जीवों की लुप्त एवं संकटग्रस्त जातियाँ –
प्रजाति | विलुप्त | संकटग्रस्त | प्रमुख संकटग्रस्त जातियाँ |
---|---|---|---|
पेड़ – पौधे | 384 | 19079 | रोडोडेण्ड्रोन, रावॉल्फिया सर्पेण्टाइना, चन्दन आदि |
मछलियाँ | 23 | 343 | प्रिसटिस, मैक्रोडन प्रिस्टिसजिस |
उभयचर | 2 | 50 | सेरन, ब्लू व्हेल, फिन व्हेल |
स्तनधारी | 83 | 497 | भेड़िया, लोमड़ी, रेड पाण्डा, बाघ, तेन्दुआ, शेर, सुनहरी बिल्ली, सुनहरा गिब्बन, नीलगिरि लंगूर, मकाक, वनमानुष, गिब्बन आदि |
पक्षी | 113 | 1037 | ग्रेट इण्डियन बस्टर्ड, साइबेरियन क्रेन आदि |
अकशेरुकी जन्तु | 98 | 1355 | लैड स्नैल, एक्टीनिला आदि |
कुल | 744 | 22531 |
इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (IUCN) –
इण्टरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की स्थापना वर्ष 1948 में की गई। इसका मुख्यालय मार्गस (स्विट्जरलैण्ड) में स्थित है। यह संयुक्त राष्ट्र संघ एवं अन्तर्सरकारी एजेन्सियो के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के कार्यों के साथ समन्वय स्थापित कर वैज्ञानिक रूप से संरक्षण तकनीक को बढ़ावा देता है। यह संस्था वर्ष 1969 से विलुप्तप्रायः, असुरक्षित तथा दुर्लभ जीवों तथा पादपों से सम्बन्धित रेड डाटा बुक जारी करती है।
आईयूसीएन की प्रमुख श्रेणियों इस प्रकार हैं –
● विलुप्त (एक्सटिंक्ट)
● वन विलुप्त (एक्सटिंक्ट इन द वाइल्ड)
● घोर संकटग्रस्त (क्रिटिकली एनडेन्जर्ड)
● संकटग्रस्त (एनडेन्जर्ड)
● असुरक्षित या सुभेद्य (वल्नरेबल)
● लगभग संकटग्रस्त जाति (नियर थिएटेण्ड)
● न्यूनतम चिन्ता वाली जाति या संकट मुक्त जाति (लीस्ट कन्सर्ड)
भारत में विलुप्तप्रायः जीवों के संरक्षण के उपाय –
भारत में प्रजातियों के संरक्षण हेतु निम्न दो प्रकार के प्रयास किए जाते हैं –
यथास्थल संरक्षण (इन – सिटू कन्जर्वेशन)
जैव – विविधता को उसके सभी स्तरों पर जननिक प्रजातियों के रूप में और अप्रभावित पारितन्त्रों के रूप में ‘यथास्थल संरक्षण’ से ही सबसे अच्छी तरह सुरक्षित रखा जा सकता है। इसके लिए निर्जन क्षेत्र का एक पर्याप्त भाग संरक्षित क्षेत्र के रूप में अलग कर दिया जाता है। यह क्षेत्र राष्ट्रीय पार्को और अभ्यारण्यों का तन्त्र होता है और इस तन्त्र में प्रत्येक विशेष पारितन्त्र शामिल होता है।
बहिःस्थल संरक्षण (एक्स – सिटू कन्जर्वेशन)
यद्यपि किसी भी प्रजाति के संरक्षण की सर्वश्रेष्ठ विधि यथास्थल संरक्षण होता है, परन्तु ऐसी स्थितियाँ भी आती हैं जब कोई संकटग्रस्त प्रजाति विनाश के इतने करीब होती है कि अगर वैकल्पिक विधियाँ न अपनाई जाएँ तो वह प्रजाति तेजी से काल के गाल में समा जाती है। इस रणनीति को बहि : स्थल संरक्षण कहते हैं, अर्थात् पौधों के लिए वनस्पतिक उद्यान या प्राणियों के लिए चिड़ियाघर जैसी नियन्त्रित स्थितियाँ पैदा करके उस प्रजाति को उसके प्राकृतिक आवास से बाहर संरक्षित करना।
ऐसी जगहों पर कृत्रिम रूप से बनाई गई दशाओं में उनकी संख्या बढ़ाने की विशेषज्ञता भी होती है लेकिन किसी संरक्षित क्षेत्र के प्रबन्ध की अपेक्षा दुर्लभ पौधों और प्राणियों के लिए ऐसे प्रजनन कार्यक्रम अधिक महँगे होते हैं।
अन्य उपाय
पौधों के संरक्षण का एक और ढंग उनके जननद्रव्य को जीन बैंक में सुरक्षित रखना है ताकि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर उनका उपयोग किया जा सके। यह एक महँगा उपाय है।
भारत में वन्यजीव संरक्षण की प्रक्रिया काफी पुरानी है। सरकार ने भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1979 द्वारा इसे कानूनी रूप प्रदान किया है। इसके तहत संकटग्रस्त जातियों के बचाव पर, शिकार प्रतिबन्धन पर, वन्यजीव आवास पर कानूनी रक्षण तथा जंगली जीवों के व्यापार पर रोक लगाने पर बल दिया गया है। भारत में रक्षित नेटवर्क में 102 राष्ट्रीय उद्यान, 441 वन्यजीव अभ्यारण्य, 18 बायोस्फेयर रिजर्व तथा 4 सामुदायिक रिजर्व शामिल हैं।
वन्यजीव संरक्षण के लिए परियोजनाएँ –
हंगुल परियोजना
हंगुल यूरोपियन रेण्डियर प्रजाति का हिरण है। यह अब केवल कश्मीर स्थित ‘डाचीगाम राष्ट्रीय उद्यान’ में ही शेष बचा है। यह आईयूसीएन की रेड डाटा लिस्ट में शामिल है। वर्ष 1970 में हंगुल परियोजना का शुभारम्भ किया गया।
कस्तूरी मृग परियोजना
आईयूसीएन के सहयोग से करतूरी मृग परियोजना उत्तराखण्ड के केदारनाथ अभ्यारण्य में 1970 के दशक में आरम्भ की गई। कस्तूरी मृग के लिए हिमाचल प्रदेश का शिकारी देवी अभ्यारण्य तथा उत्तराखण्ड का बद्रीनाथ अभ्यारण्य प्रसिद्ध हैं।
बाघ परियोजना
1 अप्रैल, 1973 को भारत में बाघ परियोजना का शुभारम्भ किया गया। भारत में कई बाघ परियोजनाएँ चल रही हैं। काजीरंगा, मानस, नमेटी (असोम) ; वाल्मिकी (बिहार) ; गुरु घासी दास, इन्दवती (छत्तीसगढ़) बान्दीपुर नागरहोल (कर्नाटक) ; पेटियार (केरल) ; कान्हा किसली, बांधवगढ़, पेंच, पन्ना (मध्य प्रदेश) आदि प्रमुख बाघ रिजर्व है। मध्य प्रदेश को टाइगर राज्य कहा जाता है।
गिर सिंह परियोजना
‘एशियाई शेरों का घर’ की उपमा से प्रसिद्ध गिर अभ्यारण्य को वर्ष 1973 में राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया।
कछुआ संरक्षण योजना
दक्षिणी अमेरिकी कछुए की एक प्रजाति है ऑलिव रिडले। ओडिशा सरकार ने इसके संरक्षण के लिए वर्ष 1975 में भीतरकणिका अभ्यारण्य में संरक्षण योजना का आरम्भ किया।
मणिपुर थामिन परियोजना
मणिपुर की लोकटक झील के दक्षिण – पूर्वी भाग में थामिन मृग पाया जाता है। अवैध शिकारियों ने इसको विलुप्तप्रायः बना दिया है। इस प्रजाति के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु वर्ष 1977 में मणिपुर में थामिन परियोजना शुरू की गई।
गैण्डा परियोजना
अवैध शिकार के कारण गैण्डों की संख्या में लगातार कमी हो रही है। अतः इसके संरक्षण के लिए वर्ष 1987 में गैण्डा परियोजना आरम्भ की गई। असोम का मानस अभ्यारण्य व काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान तथा पश्चिम बंगाल का जल्दापारा अभ्यारण्य गैण्डों की मुख्य शरणस्थली हैं।
हाथी परियोजना
हाथी दाँत (आइवरी) के लोभ के कारण शिकारी लोग अवैधानिक रूप से हाथियों का शिकार करते हैं। फलतः हाथियों की संख्या में गिरावट को ध्यान में रखते हुए वर्ष 1992 को झारखण्ड के सिंहभूम जिले में ‘हाथी परियोजना’ का शुभारम्भ किया गया। वर्तमान में भारत में 26 हाथी रिजर्व हैं।
लाल पाण्डा परियोजना
भारत के पूर्वी हिमालय अर्थात सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश तथा दार्जिलिंग में इनकी संख्या कम होती जा रही है। अतः वर्ष 1996 में विश्व प्रकृति निधि (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) के सहयोग से पद्मजानायडू हिमालयन जन्तु पार्क ने ‘लाल पाण्डा परियोजना’ का शुभारम्भ किया।
गिद्ध परियोजना
गिद्धों के संरक्षण एवं अभिवृद्धि के लिए हरियाणा वन विभाग तथा बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) के बीच समझौता हुआ। इसमें कहा गया कि भारत में अधिकांश गिद्धों की मृत्यु पशुओं को दी जाने वाली डिक्लोफेनेक नॉन – स्टेरॉएडल एण्टी इनफ्लेमेटरी दवा के उपयोग के कारण होती है।
प्रमुख तथ्य –
• कुद्रेमुख राष्ट्रीय उद्यान का मुख्य आकर्षण सिंह पुच्छ बन्दर या शिया बन्दर है।
• हिम तेन्दुआ और हिम भालू का शीत रेगिस्तानी आवास स्थल पिन घाटी राष्ट्रीय उद्यान है।
• राष्ट्रीय मरुस्थल उद्यान बिना जंगलों का राष्ट्रीय उद्यान है जहाँ चिन्कारा मिलता है।
• साइबेरियाई सारस भारत के केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान में प्रजनन करने आते हैं।
• सुन्दरबन राष्ट्रीय उद्यान की पारिस्थितिकी मैंग्रोव वृक्ष समूह पर आधारित है।
• सारंग, खेत सारंग, धूसर बगुला, काणा गरुड, वर्ततीय बटेर, कॉमन क्रेन, हार्नबिल आदि कुछ प्रमुख संकटापन्न पक्षी हैं।