इस पोस्ट के अन्तर्गत पीएससी/यूपीएससी की मुख्य परीक्षा से संबंधित अति महत्त्वपूर्ण मुद्दों के विषय में चर्चा प्रस्तुत की गई है। इस पोस्ट के अंतर्गत यहाँ पर वही लेख मिलेंगे – जो महत्त्वपूर्ण है एवं तात्कालिक मुद्दों पर आधारित हैं। इन प्रश्नों के माध्यम से न केवल आप किसी चर्चित मुद्दे के संबंध में अपनी समझ को धारदार बना सकते हैं बल्कि परीक्षा के दृष्टिकोण से संबंधित विषय से भी रूबरू हो सकते हैं। किसी भी परीक्षा को क्रैक करने के लिए आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच जरूरी है। योजनाबद्ध तरीके से काम करके ही आप सफलता पा सकते है। यहाँ पीएससी/यूपीएससी की मुख्य परीक्षा की दृस्टि से महत्वपूर्ण मुद्दों पर ही चर्चा प्रस्तुत की जायेगी ताकि आपका समय भी बर्बाद न हो और आप बहुत अच्छी तैयारी कर सके।
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भ्रष्टाचार (Corruption) क्या है ?
भ्रष्टाचार (Corruption) को केवल रुपए के लेन – देन तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता, इसका बड़ा व्यापक दायरा है। अनीति, बेईमानी, घूसखोरी, कुर्सी से चिपके रहना, सत्ता प्राप्ति के लिए बेमेल गठबंधन, लाभ तथा उसके लिए तरह – तरह के दंद – फंद करना, ये भी उसी के रूप हैं। भ्रष्टाचार की प्रकृति को समझने के लिए तथा उसे दूर करने के सुझाव देने के लिए 1964 में ही संथानम समिति का गठन किया गया था, जिसने कई महत्वपूर्ण सुझाव भी दिए थे, किन्तु भ्रष्टाचार और भारतीय राजव्यवस्था का रिश्ता कुछ इस तरह बन गया है कि मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यों – ज्यों दवा की। अब यह महामारी के रूप में हमारे पूरे राजनीतिक ताने – बाने को नष्ट करने पर आमादा है। भ्रष्टाचार जब इतनी खतरनाक हदों तक पहुँच गया हो तो उसके खिलाफ आवाज कैसे नहीं उठेगी ? बिहार आंदोलन से लेकर शेषन, खेरनार तथा अन्ना हजारे तक प्रतिवाद एवं संघर्ष का एक पूरा सिलसिला है। फिर भी यह हिमालय की तरह टस से मस नहीं होता।
भारत की नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार (Corruption) के क्या कारण हैं ?
भारत में भ्रष्टाचार (Corruption) न सिर्फ बड़े पैमाने पर व्याप्त है, बल्कि वह सुव्यवस्थित, प्रणालीबद्ध, नियोजित एवं स्वैच्छिक बनकर रिश्वतखोरों एवं रिश्वत देने वाले दोनों ही पक्षों को फायदा पहुंचाने वाली व्यवस्था का रूप ग्रहण कर चुका है। यह ऊँचे स्तरों से शुरू होकर नीचे के स्तर तक चला गया है। आज भ्रष्टाचार छोटी मोटी मात्रा में नहीं, बल्कि व्यापक स्तर पर गिनाए जा सकने वाली स्थिति में पहुँच चुका है। नित नई शक्लों एवं रूपों में भेष बदला हुआ भ्रष्टाचार अब पैसों से हटकर वस्तुओं तथा सौदों, वायदों और दलाली जैसी जटिल व्यवस्थाओं में फैल और पसर गया है। इस भ्रष्टाचार में राजनीतिक दल, सत्तासीन नेतृत्व, जन प्रतिनिधि, नौकरशाह तथा प्रजा जन सभी फंसे नजर आते हैं।
हाल ही में हांगकांग स्थित एक कन्सलटेंसी फर्म पॉलिटिकल एण्ड इकोनॉमिक रिस्क कन्सलटेंसी द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की नौकरशाही एशिया में सबसे भ्रष्ट है। इस रिपोर्ट में एशिया के देशों की नौकरशाही को दस तक क्रम से रखा गया है। भारत को 9.21 अंक मिले हैं यानी सबसे कम, जबकि सिंगापुर को सबसे बेहतर नौकरशाही वाला देश बताया गया है। उसका अंक 2.25 रहा है। गोपाल स्वामी आयंगर, ए.डी. गोरवाल, प्रो. एपलबी तथा प्रख्यात लेखक थियोडोर मोरीसन के अनुसार नौकरशाही का हास वहाँ से शुरू हुआ जब जन प्रतिनिधियों ने नौकरशाही पर नियंत्रण व अंकुश रखने के स्थान पर नौकरशाही से अनुचित कार्य करवाने आरम्भ कर दिए, जिससे अहित जनता का ही हुआ। यदि राजनीतिज्ञ लोकतंत्र, लोक कल्याण तथा लोक सेवा के प्रति प्रतिबद्ध होने के साथ प्रामाणिक भी होते तो निश्चित रूप से आज यह भयावह स्थिति देखने को नहीं मिलती। नौसिखिया मंत्रियों के पास नौकरशाही के ऊपर निर्भर रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहता। मंत्रिमण्डलीय उत्तरदायित्व में नौकरशाही पनपती चली गई तथा राजनीतिक नेतृत्व में अनभिज्ञता के कारण नौकरशाही की शक्तियों में वृद्धि होती चली गई। यदि मंत्री बुद्धिमान, कर्मठ हों तो नीतियों के निर्माण में उनकी छाप झलके तो निश्चय ही नौकरशाही इतनी हावी नहीं होती।
इसे किस प्रकार कम किया जा सकता है ?
भारत में इस बात पर प्रायः अधिक बल दिया जाता है कि सरकारी क्षेत्रों से भ्रष्टाचार (Corruption) को मिटाया जाए, लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों तथा जनजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार (Corruption) के प्रभाव व उसके प्रसार को देखते हुए इसका सर्वथा उन्मूलन किया जाना सम्भव प्रतीत नहीं होता है। सुधार के जो प्रयत्न जारी हैं वे भ्रष्टाचार को मिटा पाएंगे यह सम्भव नहीं दिखता। सबसे बड़ी दुःख की स्थिति तो यह है कि समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, विशेष तौर पर राजनीतिक भ्रष्टाचार से हुए पतन से कोई सबक नहीं लेता। इन सबका परिणाम यह हुआ है कि प्रशासनिक स्तर पर भ्रष्टाचार (Corruption) मिटाने के आधे दिल से किए जाने वाले प्रयत्न भी निष्फल हो जाते हैं।
भ्रष्टाचार (Corruption) निवारण के लिए सुझाव –
☛ स्वतंत्र स्वायत्तशासी संस्थान की आवश्यकता–
हर राज्य में किसी न किसी प्रकार के विभाग या संस्थान भ्रष्टाचार के उन्मूलन के क्षेत्र में काम करते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार लगातार बढ़ता ही गया है और कम होने या निर्मूल होने की स्थिति कभी पैदा ही नहीं हुई है। हर राज्य में भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो या सतर्कता आयोग या पीड़ा निवारण प्रकोष्ठ काम करता है। केन्द्र में केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो तथा केन्द्रीय सतर्कता आयोग इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कार्यरत हैं। इन सभी विभागों व संस्थाओं के बावजूद कोई विशेष प्रगति नजर नहीं आती। यहाँ तक कि कुछ राज्यों में लोकायुक्त संस्थान भी काम कर रहे हैं, परन्तु स्थिति में सुधार कम ही हो पा रहा है। ऐसी परिस्थिति में यह देखना आवश्यक होगा कि इन विभागों तथा संस्थानों की कार्य प्रणाली व कार्यपद्धति में क्या कोई कमी है या उन पर किसी प्रकार का दबाव है, वे स्वतंत्र हैं या नहीं हैं, वे सशक्त और सक्षम हैं अथवा नहीं। जितने सरकारी विभाग या संस्थान हैं, वे सम्भवतः सरकार के अधीन होने के कारण स्वतंत्र संस्थान नहीं हैं, वे अपने विषय में यह अनुभव करते हैं कि उनके पास कोई शक्ति नहीं है और उनके द्वारा की गई सिफारिश को मानना या न मानना भी सरकार पर निर्भर है।
सभी सरकारें घोषणा करती हैं कि वे सुशासन देंगी, विकास करेंगी, किन्तु जब तक भ्रष्टाचार व्याप्त है देश में विकास की कल्पना करना उचित नहीं होगा। जब तक भ्रष्टाचार नहीं मिटेगा, सुशासन भी नहीं आएगा। राजनीतिक नेतृत्व में भ्रष्टाचार मिटाने के लिए प्रबल इच्छा शक्ति की आवश्यकता जब तक न हो, तब तक भ्रष्टाचार का मिटना नामुमकिन है। समस्या की गम्भीरता को देखते हुए ऐसे प्रभावी कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, जिससे भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना हो सके। इस हेतु राज्य व केन्द्र दोनों स्तरों पर एक स्वतंत्र स्वायत्तशासी संस्था की आवश्यकता है जो राजनीतिक नकेल से दूर हो और प्रभावी तरीके से भ्रष्टाचारियों पर लगाम कस सके।
☛ लोक सेवकों की भूमिका–
लोक सेवक की, जिनका कि जनसम्पर्क रहता है, पूरी जवाबदेही होनी चाहिए। ऐसे लोक सेवक जनता की पहुंच के बाहर नहीं होने चाहिए। उनके काम की पारदर्शिता होनी चाहिए। किसी भी कार्य के पूर्ण होने की समयावधि निश्चित होनी चाहिए। इन सभी बातों की सतत निगरानी होनी चाहिए। सुशासन का एक महत्वपूर्ण मापदण्ड पारदर्शिता है। विधि के द्वारा सूचना का अधिकार दिया जाना एक बात है, किन्तु जिन विभागों में जनसम्पर्क रहता है, उन विभागों व कार्यालयों के अधिकारियों का यह दायित्व होना चाहिए कि उनके यहाँ लम्बित प्रार्थना पत्रों एवं मामलों के विषय में जनता को जानकारी उपलब्ध हो। वे किसी रूप में इस बात को प्रकाशित करें कि सूचना मांगने का अधिकार एक बात है और बिना मांगे सूचना उपलब्ध कराने का उत्तरदायित्व दूसरी बात है। अधिकारियों का यह भी दायित्व है कि वे कार्यालयों में उन कर्मचारियों को चिह्नित करें, जिनका जनता के साथ व्यवहार ठीक नहीं हो, जो अपने कार्य में दिलचस्पी नहीं लेते हों, विलम्ब करते हों, कार्य को निर्धारित समयावधि में पूर्ण नहीं करते हों व अपने काम को पूरा करने के सिलसिले में जनता से कोई अपेक्षा रखते हों। यदि ऐसे कर्मचारी चिह्नित किए जाएंगे तो वास्तव में उस विभाग या कार्यालय के काम के सम्पादन में आश्चर्यजनक प्रगति होगी।
☛ जनता की सहभागिता–
व्यवस्था में परिवर्तन के साथ-साथ भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए जनता की सहभागिता भी बहुत आवश्यक है। जब तक जनता द्वारा हर विभाग के छोटे-से-छोटे कार्यालय पर सतर्कता एवं निगरानी नहीं रखी जाएगी या अंकेक्षण नहीं किया जाएगा, तब तक कार्यालय से भ्रष्टाचार (Corruption) का उन्मूलन सम्भव नहीं हो पाएगा। अतः देश के हर शहर और गाँव में प्रत्येक विभागों और कार्यालयों के लिए जन सतर्कता समितियाँ स्थापित की जानी चाहिए, जोकि कार्यालय के कामकाज पर पूर्ण निगरानी रख सकें। जनता को यह जानकारी भी दी जानी चाहिए कि किस विभाग में किस काम के लिए कितना समय लगेगा तथा उस कार्य को तय कार्यावधि में पूर्ण किया जाना चाहिए। जिस काम का उत्तरदायित्व जिस कर्मचारी पर हो, उसकी जानकारी भी जनता को दी जानी चाहिए, जिससे जनता को यह ज्ञात हो सके कि कौनसा काम, किसके पास, कितने समय से लम्बित है और किन कारणों से नहीं हो पा रहा है। ऐसी जानकारी यदि जनता को रहेगी तो यह सम्भव नहीं हो पाएगा कि कर्मचारी अपने काम के सिलसिले में कोई अपेक्षा रखे और यदि कोई इसके बावजूद अपेक्षा रखता है तो वह आसानी से उच्च अधिकारी के समक्ष जवाबदेह हो जाएगा। जब तक ये व्यवस्थाएं कार्यालय में स्थापित नहीं होंगी, तब तक आम नागरिक को राहत नहीं मिलेगी।
☛ सशक्त लोकपाल की आवश्यकता–
सशक्त लोकपाल की स्थापना की जानी चाहिए। सशक्त लोकपाल खुली हवा के झोंके की तरह होगा। ईमानदार लोकसेवकों को इससे डरने की आवश्यकता नहीं है। मजबूत लोकपाल सच्चे व खरे अधिकारियों व मंत्रियों को ताकत देगा और भ्रष्टों पर नकेल कसेगा ।
☛ सीवीसी को प्रभावी करने की आवश्यकता –
सीवीसी (केन्द्रीय सतर्कता आयुक्त) प्रणाली प्रभावी इसलिए नहीं हो पा रही है कि वह सिर्फ अनुशंसा कर सकती है, कार्रवाई नहीं कर सकती। उसे कार्रवाई करने के भी अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लगा सके। इसे सरकारी नियंत्रण से और अधिक स्वायत्तता की आवश्यकता है।
☛ सिटीजन चार्टर की आवश्यकता –
कानून का बेहतर ढंग से क्रियान्वयन हो सके इसके लिए लोगों को अपने कानून सम्मत अधिकारों के प्रति जागरूक होना चाहिए और सिटीजन चार्टर बनना चाहिए। सिटीजन चार्टर का अर्थ यह है कि किसी भी नागरिक का प्रशासन के साथ जो काम हो वो निश्चित अवधि में हो। भ्रष्टाचार से उत्पन्न अक्षमता और नैतिक पतन मिलकर सम्पूर्ण राष्ट्र की प्रगति को अवरुद्ध कर उसकी प्रतिष्ठा पर भी एक प्रश्नचिह्न लगा देते हैं। चाहे विकास की योजनाएं कितनी ही सुविचारित क्यों न हों, उन योजनाओं को क्रियान्वित करने वाला भ्रष्ट एवं निकम्मा प्रशासन तंत्र योजनाओं की आधारभूत संकल्पना एवं कार्यफल को भी निष्फल कर देता है। यह एक सिद्ध तथ्य है कि यदि उपकरण तथा साधन दोषपूर्ण होंगे तो साध्य स्वतः ही अपवित्र एवं नकारा बन जाएंगे।
अंततः यह कहा जाना उपयुक्त होगा कि सामाजिक, राजनीतिक तथा प्रशासनिक क्षेत्रों में भ्रष्टाचार की नाजायज संतान को पालने-पोसने के लिए हम सभी बराबर के जिम्मेदार हैं। इसलिए सभी लोगों को ईमानदारी से इसको हटाने के प्रयास करने चाहिए।
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