यहाँ पर हमने मध्य प्रदेश की मिट्टियाँ (Soils of Madhya Pradesh) से संबंधित पोस्ट को तैयार किया है। मध्य प्रदेश की विभिन्न मिट्टियों (Soils of Madhya Pradesh) का विस्तृत वर्णन यहा पर दिया गया है। यह टॉपिक आपको मध्यप्रदेश की विभिन्न परीक्षाओं को क्रेक करने में मददगार एवं उपयोगी सिद्ध होगा।
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मध्य प्रदेश की मिट्टियाँ (Soils of Madhya Pradesh) –
धरातल की ऊपरी परत जो पेड़ को उगने व बढ़ने के लिए जीवांश खनिजांश प्रदान करती है, मिट्टी कहलाती है। वनस्पति एवं कृषि के स्वरूप को निर्धारित करने वाले कारकों में मिट्टी अत्यधिक महत्वपूर्ण है। म.प्र. अत्यन्त प्राचीन भूखण्ड का भाग है एवं चट्टानों का बना हुआ है। इसलिए मिट्टी भी इन्हीं चट्टानों से बनी हुई है। मिट्टी चट्टान तथा जीवाश्म के मिश्रण से बनती है।
➢ नदी कछारों के अतिरिक्त लगभग संपूर्ण मध्यप्रदेश में मिट्टी पाई जाती है।
➢ काली मिट्टी का काला रंग लोहे की अधिकता के कारण होता है।
➢ सर्वाधिक मृदा अपरदन चम्बल नदी द्वारा होता है।
➢ सर्वाधिक उपजाऊ मिट्टी जलोढ़ मिट्टी है।
➢ काली मिट्टी में जलधारण क्षमता सर्वाधिक होती है।
➢ मृदा अपरदन जल के अलावा वायु से भी होता है।
मध्यप्रदेश में मिट्टियों के प्रकार (Types of soils in Madhya Pradesh) –

म.प्र. में प्रमुख रूप से पाँच प्रकार की मिट्टी पाई जाती है –
- काली मिट्टी
- लाल – पीली मिट्टी
- जलोढ़ मिट्टी
- कछारी मिट्टी
- मिश्रित मिट्टी
(1) काली मिट्टी –
इसका PH मान 7.5 से 8.5 अर्थात क्षारीय प्रकृति की होती है। कपास के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होती है। साथ ही गेहूँ एवं सोयाबीन का भी उत्पादन होता है। इसका निर्माण ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे के जमने से होता है। लोहा (फेरस), चूना, पोटाश, एल्युमिनियम की प्रचुरता तथा फास्फेट, जैव पदार्थों तथा नाइट्रोजन की कमी होती है। यह म.प्र. में सर्वाधिक पाई जाने वाली मिट्टी है।
➢ इसके अंतर्गत मालवा के पठार, नर्मदा घाटी तथा सतपुड़ा पर्वत श्रंखला आती है।
➢ इस मिट्टी में जल धारण करने की क्षमता सर्वाधिक है। यह दूसरी सर्वाधिक उपजाऊ मिट्टी भी है।
➢ काली मिट्टी को रेगुर मिट्टी भी कहा जाता है।
➢ म.प्र. सर्वाधिक भू – भाग पर काली मिट्टी पाई पाती है।
➢ इस मिट्टी के काले रंग का कारण लौह तत्व की अधिकता है।
इसको भी तीन भागों में बाँटते हैं –
(a) गहरी काली मिट्टी (3.5%) – नर्मदा, सोन, मालवा, सतपुड़ा क्षेत्र।
(b) साधारण काली (37%) – मालवा पठार मुख्य है।
(c) छिछली काली (7%) – सतपुड़ा, मैकल, बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी।
(2) लाल – पीली मिट्टी –
➢ लाल – पीली मिट्टी गोंडवाना शैल समूह से निर्मित है।
➢ म.प्र. के सम्पूर्ण पूर्वी भाग में अर्थात बघेलखण्ड में पाई जाती है।
➢ इस मिट्टी का पीला रंग फेरिक ऑक्साइड तथा लाल रंग आयरन ऑक्साइड के कारण होता है।
➢ ह्यूमस, फास्फोरस एवं नाइट्रोजन की कमी होती है।
➢ प्रमुख फसल धान है।
➢ PH. 5.5 से 8.5 होता है। यह प्रदेश के 37 % भाग में पायी जाती है।
(3) जलोढ़ मिट्टी –
➢ जलोढ़ मिट्टी सर्वाधिक उपजाऊ मिट्टी है।
➢ निर्माण नदियों द्वारा बहा कर लायी गई कछारों से होता है।
➢ यह 3% भाग में पायी जाती है।
➢ नाइट्रोजन, जैव तत्व एवं फास्फोरस की कमी होती है।
➢ जलोढ़ मिट्टी में बालू, सिल्क तथा मृतिका का अनुपात 50 : 20 : 30 पाया जाता है।
➢ जलोढ़ मिट्टी की प्रकृति उदासीन होती है।
➢ गेहूँ, गन्ना, सरसों आदि फसलों के लिए उपयुक्त होती है।
➢ यह मिट्टी मुरैना, ग्वालियर एवं शिवपुरी क्षेत्र में पाई जाती है।
जलोढ़ मिट्टी मुख्य रूप से तीन प्रकार की होती है –
- बाँगर मिट्टी – पुरानी जलोढ़ मिट्टी
- खादर मिट्टी – नवीन जलोढ़ मिट्टी
- भावर मिट्टी – कंकर युक्त जलोढ़ मिट्टी।
(4) कछारी मिट्टी –
➢ यह नदियों द्वारा बहा कर लाई गई मिट्टी है जो बाढ़ के समय अपने अपवाह क्षेत्र में बिछा दी जाती है।
➢ गेहूँ, कपास, गन्ना आदि फसलें होती है।
➢ भिण्ड, मुरैना, ग्वालियर एवं श्योपुर के कुछ भाग आते हैं।
(5) मिश्रित मिट्टी –
➢ इसमें लाल, पीली, काली मिट्टी का मिश्रण पाया जाता है।
➢ यह मिट्टी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में पाई जाती है।
➢ मिश्रित मिट्टी से मुख्यत: मोटे अनाज उगाये जाते हैं।
➢ इस मिट्टी में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस एवं कार्बनिक पदार्थों की अल्पता होती है।
मृदा अपरदन (Soil Erosion) से आप क्या समझते है –
मृदा अपरदन किसी भी प्रदेश की कृषि के लिये एक गंभीर समस्या है। इसमें सतह की मिट्टी के महीन कण कट – कट कर अलग हो जाते है जिससे नीचे शेष कंकरीली एवं पथरीली मिट्टी ही बचती है जिस पर फसलों का उत्पादन घटता जाता है। मानसूनी वर्षा अपरदन का एक प्रमुख कारण है। अपरदन के प्रकारों में वायु, जल तथा हिमनद और सागरीय लहरें प्रमुख हैं।
समुद्रतट पर लहरों और ज्वारभाटा की क्रिया के कारण पृथ्वी के भाग टूटकर समुद्र में विलीन होते जाते हैं। मिट्टी अथवा कोमल चट्टानों के अलावा कड़ी चट्टानों का भी इन क्रियाओं से धीरे धीरे अपक्षय होता रहता है। वर्षा और तुषार भी इस क्रिया में सहायक होते हैं। वर्षा के जल में घुली हुई गैसों की रासायनिक क्रिया के फलस्वरूप, कड़ी चट्टानों का अपक्षय होता है। ऐसा जल भूमि में घुसकर अधिक विलेय पदार्थों के कुछ अंश को भी घुला लेता है और इस प्रकार अलग्न हुए पदार्थों को बहा ले जाता है।
वर्षा, पिघली हुई ठोस बर्फ और तुषार निरंतर भूमि का क्षरण करते हैं। इस प्रकार टूटे हुए अंश नालों या छोटी नदियों से बड़ी नदियों में और इनसे समुद्र में पहुँचते रहते हैं।
नदियों का अथवा अन्य बहता हुआ जल किनारों तथा जल की भूमि को काटकर, मिट्टी को ऊँचे स्थानों से नीचे की ओर बहा ले जाता है। ऐसी मिट्टी बहुत बड़े परिणाम में समुद्र तक पहुँच जाती है और समुद्र पाटने का काम करती है। समुद्र में गिरनेवाले जल में मिट्टी के सिवाय विभिन्न प्रकार के घुले हुए लवण भी होते हैं।
राज्य में चम्बल नदी के दोनो तटों पर मृदा अपरदन के कारण एक चौड़ी पट्टी अत्यधिक गहरे खड्डे में परिवर्तित हो गई है।
इन घाटी में महीन चिकनी अथवा दोमट मिट्टी पाई जाती है और अर्द्धशुष्क जलवायु के कारण होने वाली वर्षा से भी वनस्पतियों की न्यूनतम है, जो मृदा अपरदन की बढ़ोतरी में सहायक तत्व है।
मृदा अपरदन रोकने के उपाय –
- चरागाहों का विकास करना चाहिए।
- बहते जल की गति को नियन्त्रित करने के प्रयास करने चाहिए।
- वनरोपण तथा वृक्षारोपण को बढ़ावा देना चाहिए।
- वृक्षों की कटाई पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।
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